वीर रस के वयोवृद्ध कवि की तबीयत एकाएक खराब हो गई। हालत एकदम गम्भीर। डॉक्टरों, वैद्यों, हकीमों सभी ने जवाब दे दिया। सभी का कहना था कि कब कवि महोदय के प्राण पखेरू उड़ जायें कहा नहीं जा सकता। लोगों ने डॉक्टरों, वैद्यों, हकीमों से प्रार्थना की किसी तरह से इन्हें एक घंटे तक बचा लीजिए ताकि इनका पुत्र, जिन्हें कि सूचना दी जा चुकी है और जिन्हें घर आने में लगभग एक घंटा लग सकता है, इनका अन्तिम दर्शन कर सके। पर सभी ने यही कहा कि यह असम्भव है, कवि महोदय अधिक से अधिक आधे घंटे के मेहमान हैं। तभी उपस्थित लोगों में से एक व्यक्ति ने कहा, "मैं एक मनोचिकित्सक हूँ और मैं इन्हें इनके पुत्र के आने तक जीवित रखने की गारण्टी लेता हूँ। आप सभी मुझे इनके कमरे में अकेला छोड़ दें। कमरे का दरवाजा बाहर से बंद कर दें और तभी खोलें जब इनका पुत्र आ जाए।"
लोगों ने मनोचिकित्सक के कहे अनुसार ही किया। अब कवि महोदय के कमरे में मनोचिकित्सक ने बेहोश कवि के कान में धीरे धीरे कहना शुरू किया, "मैं आपकी कविता सुनने के लिए आपके पास आया हूँ। वही कविता जो आपने दिल्ली के लाल किले के मंच में सुनाया था। आप की कविताएँ तो मुर्दों में जान फूँक देती हैं। क्या कविताएँ लिखते हैं आप! मुझे कविता सुनाए बगैर आप मर नहीं सकते....." मनोचिकित्सक इन वाक्यों को बार बार कवि के कान के पास दुहराने लगा। बहुत ही जल्दी प्रभाव देखने को मिल गया और कवि महोदय ने नेत्र खोल दिए, कमजोर स्वर में कहा, "मैं कैसे कविता सुना सकता हूँ? मुझमें तो उतनी शक्ति ही नहीं है।" मनोवैज्ञानिक ने कहा, "आप फिक्र मत कीजिए, मैं आपमे शक्ति का संचार करूँगा़, आपकी कविताओं के प्रति मेरा प्रेम का भाव आपको शक्ति देगा, आपकी कविताएँ स्वयं आप को शक्तिमान बनायेंगी, आप कविता सुनाना शुरू तो करें।" इस पर कवि महोदय में और भी शक्ति का संचार हो गया और उन्होंने कहा, "अच्छा, जरा टेबल से उठाकर मेरी डायरी दो।"
कवि महोदय ने कविताएँ सुनाना चालू कर दिया। ज्यों ज्यों कविताएँ सुनाते जाते थे त्यों त्यों जोश बढ़ते जाता था। उनकी आवाज बाहर लोगों को भी सुनाई देने लगी मगर कविपुत्र के आने तक वे लोग भीतर नहीं जा सकते थे। खैर, एक घंटा व्यतीत हो गया और कवि के पुत्र आ पहुँचे। अपने पिता की आवाज सुनकर आश्चर्य से उसने कहा, "तुम लोगों ने तो सूचना दी थी कि मेरे पिता अपनी अन्तिम अवस्था में हैं पर उनकी तो कविता सुनाने की आवाज सुनाई दे रही है।" लोगों ने उसे बताया कि एक मनोवैज्ञानिक ने उन्हें बचाकर रखा हुआ है, जल्दी से चल कर अपने पिता के अन्तिम दर्शन कर लो।
कमरे का दरवाजा खोला गया। दरवाजा खुलने पर लोगों ने देखाः
कवि महोदय अपने शैय्या के ऊपर रौद्ररूप लेकर खड़े हुए बुलंद आवाज में वीर रस की कविताएँ पढ़ेजा रहे हैं और नीचे जमीन पर मनोवैज्ञानिक की लाश पड़ी हुई है।
लोगों ने मनोचिकित्सक के कहे अनुसार ही किया। अब कवि महोदय के कमरे में मनोचिकित्सक ने बेहोश कवि के कान में धीरे धीरे कहना शुरू किया, "मैं आपकी कविता सुनने के लिए आपके पास आया हूँ। वही कविता जो आपने दिल्ली के लाल किले के मंच में सुनाया था। आप की कविताएँ तो मुर्दों में जान फूँक देती हैं। क्या कविताएँ लिखते हैं आप! मुझे कविता सुनाए बगैर आप मर नहीं सकते....." मनोचिकित्सक इन वाक्यों को बार बार कवि के कान के पास दुहराने लगा। बहुत ही जल्दी प्रभाव देखने को मिल गया और कवि महोदय ने नेत्र खोल दिए, कमजोर स्वर में कहा, "मैं कैसे कविता सुना सकता हूँ? मुझमें तो उतनी शक्ति ही नहीं है।" मनोवैज्ञानिक ने कहा, "आप फिक्र मत कीजिए, मैं आपमे शक्ति का संचार करूँगा़, आपकी कविताओं के प्रति मेरा प्रेम का भाव आपको शक्ति देगा, आपकी कविताएँ स्वयं आप को शक्तिमान बनायेंगी, आप कविता सुनाना शुरू तो करें।" इस पर कवि महोदय में और भी शक्ति का संचार हो गया और उन्होंने कहा, "अच्छा, जरा टेबल से उठाकर मेरी डायरी दो।"
कवि महोदय ने कविताएँ सुनाना चालू कर दिया। ज्यों ज्यों कविताएँ सुनाते जाते थे त्यों त्यों जोश बढ़ते जाता था। उनकी आवाज बाहर लोगों को भी सुनाई देने लगी मगर कविपुत्र के आने तक वे लोग भीतर नहीं जा सकते थे। खैर, एक घंटा व्यतीत हो गया और कवि के पुत्र आ पहुँचे। अपने पिता की आवाज सुनकर आश्चर्य से उसने कहा, "तुम लोगों ने तो सूचना दी थी कि मेरे पिता अपनी अन्तिम अवस्था में हैं पर उनकी तो कविता सुनाने की आवाज सुनाई दे रही है।" लोगों ने उसे बताया कि एक मनोवैज्ञानिक ने उन्हें बचाकर रखा हुआ है, जल्दी से चल कर अपने पिता के अन्तिम दर्शन कर लो।
कमरे का दरवाजा खोला गया। दरवाजा खुलने पर लोगों ने देखाः
कवि महोदय अपने शैय्या के ऊपर रौद्ररूप लेकर खड़े हुए बुलंद आवाज में वीर रस की कविताएँ पढ़ेजा रहे हैं और नीचे जमीन पर मनोवैज्ञानिक की लाश पड़ी हुई है।
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